क्या नारी का व्यक्तित्व रह गया? poem by Divya Shukla

 

1-पुरुषों की संवेदनाओं पर जीना ही
क्या नारी का अस्तित्व रह गया?

पुरुषों की सुविधाओं में ढलना ही
क्या नारी का व्यक्तित्व रह गया?

नहीं!

अब समय की मांग है कि
औरत को अपना अस्तित्व बचाना होगा,
सब की संवेदनाओं पर भी,
अपनी भावनाओं को प्रथम लाना होगा।

ख्याल करो सब की
सुविधाओं और भावनाओं का
मगर हे नारी !
तुम्हें अब अपना व्यक्तित्व भी दिखाना होगा।

हर बार आश्रय ही
तुम नहीं लो गी किसी के कांधे का
अब बात तुम्हारे अस्मत की है
तुम्हें स्वयं ही इस जंग में दांव लगाना होगा।

बेलन पकड़ो बेशक तुम
घर गृहस्ती का साज बढ़ाओ,
पर जब बात तुम्हारी आबरु की हो
तो तुम दुनिया पर भारी पड़ जाओ ।

शिक्षा मतलब किताब नहीं ।
कोमलता मतलब श्रृंगार नहीं,
आत्मविश्वास मतलब अहंकार नहीं,
नारीस्वलम्ब का एक नया पाठ तुम्हे
अब इस समाज को पढ़ाना होगा।

ऐ -भारत की नारी तुम्हें
अब स्वयं ही आगे आना होगा।।


2- जन्म से ही हमे शुभ होने का
प्रमाण देना पड़ता है
मैं औरत हूं ना !
मुझे घर समाज देखकर चलना पड़ता है।।

पैर बढ़ने से पहले
बेड़िया पहनना पड़ता है
मैं औरत हूं ना !
मुझे दहलीज के अंदर रहना पड़ता है।

कलम की उम्र तो तय है हाथों में
पर बेलन उम्रभर चलाना पड़ता है,
मैं औरत हूं ना !
मुझे सब के स्वाद का ख्याल रखना पड़ता है।

कोई कभी ज़ुबां से मारे तो कभी हाथ से
पर हमें सब सहना पड़ता है,
मैं औरत हूं ना !
मुझे बहुत सब्र रखना पड़ता है।।


Web Title: divya shukla


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