"कविता
स्त्री के साथ जैसे सुहागन की पहचान होती है बिंदी।
राष्ट्र के साथ वैसे राष्ट्रीयता की पहचान होती है हिंदी।
बिना अपनी ज़बान के जब हम भाव पचा नहीं पाते।
अर्थों का करके अनर्थ हम अटक-अटक कर हकलाते।
आधे-अधूरे अंग्रेजी ज्ञान को वो झाड़ हम पर इठलाते।
पूरी शुद्ध हिंदी जो बोले तो पिछड़े का तमगा वो थमाते।
अपनी भाषा अपनी माता को अपने घर से दूर भगाते।
वो ही पराई भाषा को माँ मानकर कैसे तो गले लगाते।
कान्वेंट में पढ़कर छब्बीस आखर हमें आँखें दिखाते।
बावन आखर के ज्ञान को कहाँ कोई यहाँ समझ पाते।
अपनी हिंदी भाषा का अक्षुण्ण सम्मान नहीं रख पाते।
अंग्रेजी को न समझ पाते फिर भी सब उस पर इतराते।
अपने भारत माँ के हाथों की हम जैसे उजाड़ रहे है मेहंदी।
राष्ट्रीयता शर्मसार है, जब से उपेक्षित हुई है हमारी हिंदी।
आओ, अब मिलकर करे हम हिंदी-हित में हकबंदी।
ससम्मान स्थापित हो अब हमारी मातृभाषा देवनागरी हिंदी।
विदेशी भाषाओं के विरुद्ध सब एकजुट करे लामबंदी।
हिंदीभाषी राष्ट्र में राष्ट्रीयता विरुद्ध तोड़े घिनौनी घेराबंदी।
कुलदीप सिंह भाटी"
Web Title: Poem by Kuldeep Singh Bhati
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