नारी एक रुप अनेक
कभी सीता कभी काली, कभी दुर्गा बनी नारी।
तुम इतिहास को देखो, आदर्श की भाषा बनी नारी।।
सत्यवान् के प्राण हरने को, यमराज स्वयं आया।
पति के प्राण रक्षा को, यम के आगे डटी नारी।।
प्रजा के मिध्या दोष के कारण, वन को गयी नारी।
वेदों की ऋचाओं को, देखो गढ़ने लगी नारी।।
धृतराष्ट्र अंधे थे, कि अंधी बन गयी गांधारी।
ऋषि- मुनियों की तरह, तप करने लगी नारी।।
स्वाभिमान की खातिर, जौहर कर गयी नारी।
आदोंलनो में देखो, हिस्सा लेने लगी नारी।।
चम्पा ने स्वयं भूखी रह, अतिथि को भोजन दिया।
झांसी की रक्षा के लिए, अंग्रेज़ों से लड़ गयी नारी।।
अंतरिक्ष में भी उड़ान, अब भरने लगी नारी।
दंगल के मैदान में, देखो उतर गयी नारी।।
वैश्विक महामारी से, संघर्ष रत रह कर।
पूर्ण विश्व में भारत का, परचम लहरा रही नारी।।
Web Title: Poem by Manisha Saraswat
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