हर युग में सहा है तुमने
पराजय कहो कब मानी है?
तुम हर युग में लड़ती आई हो,
बस यही तुम्हारी कहानी है।
चरित्रहीन !
है ना यह शब्द पहचाना - सा?
कई बार सुना है ना तुमने,
हो भले ही वह जाना या अनजाना सा!
कभी तुम्हारी अपनी ही मां ने,
या कहा हो दादी नानी ने।
कभी पिता - तुल्य कोई नाता हो,
या कहा कभी स्वयं पिता ने...
कभी राह चलता कोई अन्य हो
या घर में रहता कोई अपना...
किसी के मुख से, उम्र के किसी पड़ाव पर;
सुना तो है ना तुमने?
तुम अग्नि - सी पवित्र हो,
या सीता से सावित्री!
तुम भले ही शुद्ध सोने - सी,
या नदी की बहती धारा हो;
किसी राह पर,
किसी क्षण के मध्य,
चरित्रहीन! ...सुना है ना तुमने?
परन्तु, तुम्हे भी कहां होगा संज्ञान...
कैसे जान पाओगी तुम;
किस कलुषित हृदय में,
चरित्रहीन बन बैठी हो तुम!
सुनो, तुम रुकना मत!
तुम झुकना मत!
ना नीर बहाना नयनों से,
ना ग्लानि से भर जाना तुम!
रहना अपनी ही बनाई हद में,
रहना अपने है मद में,
तुम प्रश्न मत करना स्वयं ही;
स्वयं के चरित्र पर।
उठो!
उठाओ तलवार स्वयं ही।
स्वयं बनो ढाल तुम।
कहां द्वापर, कृष्ण कहां कहो,
द्रौपदी बन ना रह जाओ तुम!
कलियुग है, यहां कलि प्रबल
बनना होगा तुम्हें सबल...
यहां श्यामा तुम्हीं और श्याम भी,
यहां अर्जुन तुम्हीं बलवान भी!
उठो!
उठाओ शमशीर स्वयं,
प्रत्यंचा पे रखो स्वाभिमान को।
ब्रह्मास्त्र बड़ा, यही दिव्यास्त्र सभी;
तुम रहो सदा निर्भीक बनी!
यहां कृष्ण चीर नहीं बढ़ाएंगे,
परन्तु सदा वहीं विराजेंगे,
जहां प्रस्तुत होगी तुम स्वयं...
अपना सम्मान बचाने को!
Web Title: Poem by Nivedita Kaundinya
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