आज़ादी नारी की poem by Saumya Singh

 आज़ादी नारी की..


कितना हम बदल चुके,
कितना और बदलना है,
नारी की आज़ादी पे कितना
इसको छलना है।

पढ़ लिख कर तो बहुत ज्ञानार्जन हमने किया,
फिर भी अपनी सही सोच का न सृजन हमने किया।

अभी भी क्यों कई पहलुओं पे
इसे कमतर आँका जाता है?
क्यों पौरुषत्व का कहीं पे वर्चस्व दिखाया जाता है?

नारी की सशक्त भूमिका
देखी जाती है चहुँ ओर,
डंका भी तो बजता देखो
विश्व पटल हर छोर।

लेकिन अभी भी ज़रूरत
बहुत सी नए नए आयामों की।
जहां न कोई खाई दिखे न बहसी कुदृष्टि उठे इंसानों की।

मन मे उपजे भावों को बांटने,
मूर्तरूप देने की आज़ादी,
समाज मे पनपे कुंठित रस्मों रिवाज़ों, अबधारणा की आज़ादी।

घूंघट के दुपट्टे से इहलीला खत्म करने से आज़ादी,
बेटे की चाहत कोख मे घुटकर
मारने से आज़ादी।

सूनी गोद, टोने टोटके, बांझपन के ताहने,उलाहने से आज़ादी।
दहेजप्रथा की दहकती अग्नि प्रचंड बाढ़ के मुहाने से आज़ादी।

घर की चारदीवारी की घुटन, फरियादी बात से आज़ादी ।
निरक्षरता की घुप्प काली स्याह
रात से आज़ादी।

छुआ छूत,अश्पृश्यता के कलंक
से आज़ादी।
रंग,नस्ल,लिंग-भेद के घिनोने डंक
से आज़ादी।

ऐसे ही कुछ दृश्य जो अभी भी आंखों में घूम जाते हैं,
कैसे यह पाटी जाए खाई दिल में सवाल दवे रह जाते हैं।

सही मायनों में क्या,नारी को सचमुच आज़ादी, आज़ादी लगती है?
या वो इस परिवेश में अब भी बस ठगी ठगी सी लगती है।



Web Title: saumya singh


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