रोज़ सुबह उठती हूँ poem by Shalini Vishwakarma

 रोज़ सुबह उठती हूँ ,

मानो रोज़ की आदत में हो शुमार
झाड़ू हाथ में होती है
रसोईघर में दौड़ कर पहुँचती हूँ
समय पर सभी को नाश्ता है चाहिए
तनिक भी देर हुई तो
भूचाल आ जाने की नौबत है मानो
कभी चन्द मिनटों के लिए जाऊ बैठ
तो शुरुआत हो जाती है तानों की
मानो ये रोज़ की आदत में हो शुमार
कभी एहसान भी जाता दिया जाता है
जिनमें चन्द साड़ियां और गहने होते हैं शुमार
अस्तित्व को खोजती हुई
डाल लेती हूँ ये आभूषण की जंजीरें
शायद मिल जाए इन्ही में पहचान ।



Web Title:shalini vishwakarma 


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