आज की नारी
वो जींस के पाकिट में अपनी सैलरी रख लेती है।वो आज की लड़की है,रंगीन पर्सों में कहां उलझती है।
वो बेतरतीब सा जूड़ा बांधे बिना आइने में सूरत निहारे घर से निकल पड़ती है।वो आज की लड़की है कोरी सुंदरता की फ़िक्र कहां करती है।
वो हंस हंस के अपने सहकर्मी से बात करती है, कभी उदास हो तो दोस्त के कंधे पर सिर भी धरती है,वो आज की लड़की है,मर्दों से कहां झिझकती है।
वो सेनेटरी पेड के लिए नहीं ढूंढ़ती महिला दुकानदार,बेझिझक अपनी पसंद की चीज चुनती है,वो आज की लड़की है,अपनी जरूरत खूब समझती है।
सूरज के जागने से पहले उठना छोड़ दिया है उसने,अपने घर और दफ्तर के बीच अपना सुकून भी ढूंढ़ लेती है,वो आज की लड़की है अपने वक्त की कीमत समझती है।
वो सबके साथ अपनी पसंद का भी ख्याल रखती है,सबकी थाली में स्वाद और सेहत का तालमेल बैठते बैठते कुछ अपने स्वाद का भी बना लेती है,वो आज की लड़की है खुद को खुश रखना जानती है।
वो स्कूटी के अगले हिस्से में सिलेंडर रख के चल पड़ती है,दहलीज के बाहर के मसले भी कुशलता से हल करती है,वो आज की लड़की है,किसी का सहारा कहां तकती है?
वो सिर पर दुपट्टा रख के बड़ों का लिहाज नहीं रखती,उनके करीब बैठ के सुख दुख बांट लेती है,वो आज की लड़की है,घर पर कोई मुश्किल पड़े तो किसी की रहा नहीं देखती,खुद से दो हाथ आजमाती है।
Web Title: Poem by Pratibha Jain Shah
आत्मनिर्भर दिवाली की दो प्रतियोगिताओं (कविता-प्रतियोगिता एवं लेखन-प्रतियोगिता) में भाग लें. 2,100/- का प्रथम पुरस्कार... अपनी रचनायें जल्दी भेजें ...