एक सोच.एक बग़ावत....
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मैं बग़ावत पे आमादा हूं मुझें मार दीजिये,
मेरी शब्दों की धार को और न धार दीजिये.
बेहतर है आप हमें मार दीजिये ,
मैं कल्पनाओं को कम हकीकत लिखती हूं..
जहां की सोच को इतना सोच कर लिखती हूं,
फ़रेब नही मर्ज की दवा नही मैं रोग लिखती हूं.
मैं काफ़िर मुसाफ़िर हूं अब कहाँ ठहरती हूं,
मैं कलम को अपनी स्याही में नही उन आँसुओ से लिखती हूं .
कितनी हैवानियत हुई मासूम बच्चियों से उनकी हर एक चीख़ लिखती हूं,
इंसाफ की चाह में भटकती उन माँ बाप का दर्द लिखती हूं..
उन मासूम की रूहों का इंतजार लिखती हूं,
मैं सरेआम बाज़ार में बिकने के लिये नही ..
मैं आगाज़ हूं तुम्हारी सोच का अंजाम लिखती हूं,
कोरे कागज़ में महज़ अल्फ़ाज़ नही...
मैं अब तुम्हारी अस्ल औक़ात को लिखती हूं,
तुम्हारी कुरीतियों में गिरफ्त उस सोच को लिखती हूं....
मैं बग़ावत पे आमादा हूं बेधड़क होकर लिखती हूं,
मैं नही मानती कोई दहलीज़ सच को बोलने की ...
मेरे हाथों में कलम है मैं लेखक हूं अपने ईमान से लिखती हूं,
मैं एक फ़रमान लिखती हूं मैं झूठ नही उसकी औकात लिखती हूं,
गलत को सच का थप्पड़ मार सकू वो बात लिखती हूं....
मैं बिकने के लिये नही मैं सच का अखबार लिखती हूं,
झूठ का कारोबार नही करती मैं दरअसल इसलिए.....
तुम्हारी आँखों मे आँखे डाल कर मैं बात करती हूं,
मैं अब बग़ावत पे आमादा हूं बेहतर है इंसाफ दीजिये,
वरना हमको मार दीजिये.....
Web Title: Poem by Rashmi
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