"स्त्री"
उसे पसंद था
वो अंधेरी गुफा की ऊंची दीवार का वो झरोखा
और उस झरोखे से आते
कतरा भर धूप को महसूस करना ।
वो चाहती थी उस ऊँचे झरोखे से बाहर झाँकना।
उसने तो शुरू भी कर दिया था
ख्वाबों के परो को उगाना ।
पर, उसे बताया गया
नही झाँकती स्त्रियां स्वयं झरोखों से बाहर ।
हम दिखाएंगे तुम्हें बाहर की दुनिया
अपनी आँखों से ।
वो उन आँखों के बताए किस्सों संग और
वो उस कतरा भर धूप के सहारे
अपने को जोड़ती रही
बाहर की दुनिया से ।
उसे बताया गया
बाहर धूप बहुत तेज़ है
वो झुलस जाएगी
इस गुफा में रहना सुरक्षित है
उसके लिए ।
उसे बताया गया
नही होते स्त्रीयो के पास पंख
क्योंकि वो उड़ नही सकती
वो तो घिसट कर चलती आयी है
और उन्हें ऐसे ही चलना होगा ।
उसने अपने दंभ की छुरियां चलाई
और काट दिए उसके नन्हें अंकुरित पर ।
उसने बेबसी में अपने कटे परो को देखा
पर वहाँ लहूलुहान पर नही थे बल्कि उनके स्थान पर
खड़ी थी एक स्त्री
बिल्कुल वैसी बिल्कुल उसके जैसी
पर उसकी आँखों में समर्पण की जगह
थे लाल विद्रोह के डोरे ।
शायद इतने वर्षों के कारावास का परिणाम थी वो
उन कटे हुये उम्मीदों के परो का प्रतिदान थी वो
या मन मंथन का प्रतिफल थी वो ।
उसने चीखते हुए कहा
तुमने पी लिया सारा दर्द
और बन गयी महान।।
क्यों
क्यों महान बनना चुना तुमनें ।
बजाय इसके
तुम कर सकती थी प्रतिरोध ।
अनादि काल से
चली आ रही परम्पराओं के साथ
देवी बन कर जीते हुये
तुम थकती क्यों नही ।
नारी की परिभाषा
जो स्थापित है सदियों से
न जाने किन परिस्थितियों में
न जानें किन घटनाओं के संग
उसे ही रटती हुई
चली आ रही हो तुम
न जाने कितने युगों से ।
बहुत हुआ रटना
अब समझना होगा ।
परिवर्तन हर काल का अभिन्न अंग है
फिर तुम्हारा क्यों नही ।
तुम कोई लोकगीत या कथा नही
जिसे जैसे का तैसा परोसा जाय ।
ये सफर तुमको ही तय करना है
रास्तों पर आँखे मूँद कर
पीछे पीछे चलना
सिर्फ यही कार्य नही तुम्हारा ।
तुम भी झाँक सकती हो झरोखों से
तुम भी बना सकती हो अपने रास्ते
उनका आनंद तुम भी ले सकती हो ।
क्षमा दया त्याग की प्रतिमूर्ति बन
कब तक देखोगी
अपने अंगों को क्षत विक्षत होते हुये ।
हुँकार भरनी ही पड़ेगी ।
पीढ़ियों के इस अंधेरी गुफा से निकलने के लिए
तुम्हें वर्जनाओं के पहाड़ को धकेलना ही होगा ।
तभी मिल सकेगी
वो स्त्री
जो महान नही
देवी नही
लोकगीत या कथाएँ नही
घिसट कर चलने वाली नही।
अपने ख्वाबों के परो के साथ
ऊँची उड़ान भरने वाली
सच मायनें में एक स्त्री ।
तुम तैयार हो ना ।
वो उठी
और उसने थाम लिया उसके हाथों को ।।
अन्नपूर्णा गुप्ता"सरगम"
स्वरचित, मौलिक
Web Title: ANNAPURNA GUPTA SARGAM
आत्मनिर्भर दिवाली की दो प्रतियोगिताओं (कविता-प्रतियोगिता एवं लेखन-प्रतियोगिता) में भाग लें. 2,100/- का प्रथम पुरस्कार... अपनी रचनायें जल्दी भेजें ...