आज और कल - Poem by Azaad

 "__________आज और कल__________

1......

आज ये धरती को क्या हुआ है,

          ये क्यूं कर तप रही,

             तावा बनकर,

      हद होती है किसी चीज की,

             कहीं ऐसा ना हो,

                  पिघल जाए,

        पर करे क्या कोई,

आंच सूर्य का भी तेज़ है,

ता पे हवा भी,

     हवा दे रही है,

और उसपे,

      बैठकर इंसान,

इत्मिनान से अपनी रोटियां सेंक रहा है,

           आखिर कब भरेगा,

        भूखड़ इंसान का पेट,

            या वो यूं ही,

हरे-भरे-नन्हें-मुन्ने,

     कच्ची उमर के,

    कच्चे पौधों को,

    ना अक्ल की,

        कठौती में,

गुंथ-गुंथ कर,

      रोटियां सेंकेगा,

     सेंकता ही जाएगा,

  खाएगा और,

             खाता ही जाएगा,

,,,,,,

2.......

क्या वह कभी तृप्त हो रहेगा,

            शायद नहीं,

            कभी नहीं,

      और कल को जब,

           कुछ शेष ना रहेगा,

                खाने को तब,

          पानी पी उतराएगा,

                इतराएगा,

              पर कैसे,

वो तो कब का पी चुके होंगे,

         हमारे अपने,

          जले भुनें,

           सूर्य देवता,

,,,,,,,,,,,

3.........

क्यूं याद नहीं,

इतनी जल्दी भुल गए,

अरे पिछली होली को ही तो,

     हमने, आपने, सबने,

      जलाइ थी होलिका,

      पर गलती से,

ना -ना अफ़सोस नहीं है,

        तनिक भी हमें,

क्योंकि वो गलती,

हमारी थी ही नहीं,

वो तो बैरन हवा थी,

      जिसने एक चिंगारी को,

       अपने सर पे ले उड़ी,

और फुंक ही डाली,

अपने सूर्य देव के चादर को,

        जब वो सो रहे थे,

             इत्मिनान से,,,,

,,,,,,,,,

4........

चादर जली जो उनकी,

    तो वो भी जलने लगे,

      छट-पट-छट-पट उठे,

आंख खोली तो,

सामने धरती खड़ी थी,

नंगी- बावली सी,

विधवा ही तो थी,

      और उसपे,

     बारी बारी से,

उसके पुत्र,

धरती पुत्र,

उसके सीने से,

छिने जा रहे थे,,

मानों इस बार,

कसम खा ली हो,

      कंश ने,

   कि इस बार,

   वो कृष्ण को भी,

नहीं छोड़ने वाला,,

,,,,,,,,

5.....

धरती मईया,

     रो रही थी,

     कई समुद्र और,

बना लिए थे,

अपने आंसुओं से,

अपने ही आंसुओं में,

वो डुबती जा रही थी,

वो डुब रही थी,,,

,,,,,,,,,,,,

6........

इधर जले- भुनें,

दर्द में कराहते हुए,

     सूर्य देव ने,

जब ये मंज़र देखा,

   तो वो भी रो पड़े,

और लगे,

आंखों से,

आग बरसाने,

और कसम खायी,

कि इस बार,

मैं मारुंगा,

    कंश को,

जो लील गया है,

    मेरे कृष्ण को,

और तब कहीं,

आश्वस्त हुई,

असहाय धरती मईया,,,,

,,,,,,,,,,,,

7.........

खैर जब हम भुखड़- इंसानों को,

नसीब ना होगा, चुल्लू भर पानी,

                पीने को,

     पर डुब मरने को,

   पानी ही पानी होगा,

हमारा अंत महान होगा कितना,

        हमारी आत्मा,

परमात्मा में मिल जाएगी,

आज परमात्मा भी,

    खुश हो रहेंगे,

क्योंकि आज हम खुश हैं,

     हमारी आत्मा ख़ुश है,

भले ही कीड़े-मकोड़े मर रहे हैं,

       मरें तो मरें,

                 अपनी बला से,

वो पांडव तो है नहीं,

जो सुरंग बना बच जाते,

आज भले ही पाख- पखेरु,

      जलचर-थलचर,

होके घर -विहिन,

एक एक करके,

   विलुप्त हो रहे हैं,

पर हम तो बढ़ रहे हैं,

     बढ़ते ही जा रहे हैं,

नित-नए साधन भी, 

हमारे लिए,

आज क्या नहीं है पास हमारे,

          महले-दो-महले,

               तले-पे-तले,

और उसमें क्या-क्या है,

कितना कहें, जितना कहें,

      उतना शेष रहे,,

वैसे आज उनकी बारी है।

तो कल को हमारी है,,,,।।

✍️ आज़ाद ✍️🙏🙏🙏🙏🙏"



Web Title: Poem by Azaad


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