वो
जो सारे जग की शीतलता पर अग्नि है जिसका दर्पण ,
हर युग में हर जन्म मे सीखा जिसने मात्र समर्पण ।
माता बनकर कभी वो देती है आँचल की शीतल छाया,
खुद गीले में सोती है वो और सूखे में हमे सुलाया।
कभी कलाई की राखी बन हर लेती वो सारी विपदा ,
एक मधुर मुसकान के साथ वो सर लेती है अपने हर बला।
सप्त पदों की यात्रा से जिसने वार दिया है तुम पर तन मन ,
और कभी यमदूत से लड़कर छीन के लाई है वो जीवन ।
कभी वो बनकर कली वो सारा घर आँगन महकाती है,
जिसके मृदु वचनों से चिंता की लकीरें धूमिल पड़ जाती है ।
जब पराधीनता से व्याकुल हो मातृभूमि पुकार लगाती है ,
हाथो मे धर खड़ग वो झांसी की रानी बन जाती है ।
जब अस्मिता मे हो घात , दाव मे इज्जत जब लग जाती है,
बन कर के रानी पद्मनी वो जौहर रच जाती है ।
है इतिहास गवाह जब घूँट अपमान के वो पी जाती है,
उसकी पीड़ा से व्याकुल यह धरती भी फट जाती है।
जब कलम चलती है कागज पर खुद भविष्य वो अपना गढ़ती है ,
नित नये सफलता के सोपानों पर वह निशदिन चढ़ती है ।
कभी कल्पना बन कर उसने अंतरिक्ष को खंगाल लिया ,
और कभी बनकर अवनी युद्धक विमान को संभाल लिया ।
अन्नपूर्णा कभी लक्ष्मी बनकर परिवार चलाती है ,
अंत बुराई का करने को महिषासुरमर्दनी बन जाती हैं ।
Web Title: Poem by Deepti pandey