एक स्वतंत्रता सेनानी poem by Neeraj Kumar Singh

 

उसके दोनों बेटे शहर में हैं
उम्र के इस दौर में वह एकदम अकेला है
उसकी सुखी हड्डियां उसके युवा शरीर की झलक दे जाती है
इस शरीर में भी कभी कसाव था ये बतलाती है
कभी कोई आस पड़ोसी खाने को कुछ दे जाता है
नहीं तो इसी खटिया पर खासते थूकते उसकी रात गुज़र जाती है
आज उसके पास कोई सरकारी सहायता नहीं
कोई कृषि यंत्र नहीं
और ना ही कोई अपना है
पर उसकी बूढ़ी आंखों में
अखंड देश का सपना है
और
और
और क्या ?
उसकी तो बस यही रामकहानी है
पूछने पर पता चला
कि वह तो एक स्वतंत्रता सेनानी है

मौलिक/अप्रकाशित/अप्रसारित


Web Title: neeraj kumar singh


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