स्वतंत्रता
जब-जब एक स्त्री ने सब समेटना चाहा,
भले कुछ चुभ गया हो हृदय में मगर,
उस चुभन को सहना चाहा।
हुई वो पसीने से तरबतर घूँघट की आड़ में,
और ऐसे ही कुछ मेहनत से रिश्तों को जोड़ना चाहा।
वो सहती रही जब तक सब सह लिया,
तुलना हुई वो भी झेला,
चुप रही वो अधिकतर और,
जब थोड़ी अनुमति हुई तो कुछ कह दिया।
तब तक वो संस्कारी रही,
कोई था नही उस जैसा,
सबकी वो दुलारी रही।
पर कब तक झेलती वो,
इन लू के गर्म थपेड़ों को,
अब उसे घूँघट उठाना पड़ा,
पसीना कोई और क्यों ही पोंछता,
उसे खुद ही इसे सुखाना पड़ा।
तो अब वो थोड़ा अपनी वाली करने लगी,
गलत सहना छोड़ सच के साथ चलने लगी,
और जब उसने कुछ अलग करना चाहा,
काँटों की राह में कुछ फूलों को बिखेरना चाहा,
तब-तब वो शिकार हुई,
आलोचना का, तिरस्कार का और क्रोध का,
क्योंंकि अब तक थी वो रट्टू तोता,
बस प्रश्न था,
कोयल सी स्वतंत्र बोली वो कैसे बोलने लगी?
©रुचि मिश्रा
Web Title: ruchi mishra
आत्मनिर्भर दिवाली की दो प्रतियोगिताओं (कविता-प्रतियोगिता एवं लेखन-प्रतियोगिता) में भाग लें. 2,100/- का प्रथम पुरस्कार... अपनी रचनायें जल्दी भेजें ...