पिता poem by Sandeep Solanki

 (पिता )


बच्चों के उज्जवल भविष्य के बन्द द्वार खोलने को
खून पसीने में भीगता है वो घर बार जोड़ने को
चप्पल के एक फटे सिरे तक को फूल समझ लेता है
चप्पल पुरानी छोड़ नयी लाना भूल समझ लेता है
अपने परिवार की जरूरतों में पूरी उम्र गुजार देता है
खुद उजड़कर अपने बच्चों का जीवन संवार देता है
वो हमेशा आँसु पी कर खुशियाँ लुटाता बच्चों पर
गरीब होकर भी ना कभी रोक लगाता खर्चों पर
सदैव परिवार को सिरआंखों पर ढाले रखता है
बोझ ढोते ढोते दब जाते कंधे पर संभाले रखता है
पिता है जो घर को एक सुगंधित बागबान बना देता
पिता है जो ख़ुद को उस घर का निगेबान बना देता
पिता मेरे लिए मेरे सर्वेश्वर गुरु भगवान है
उनके श्री चरणों मेरा शत शत प्रणाम है||



Web Title: sandeep solanki


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