कविता का शीर्षक - आज़ाद होने की ज़द्दोज़हद में हूँ
मैं आज़ाद होने की ज़द्दोज़हद मैं हूं।
आज़ादी की, अपनी सुविधानुसार कपड़े पहन सकूं।
आज़ादी की, अपने काम की वाजिब कीमत मांग सकूं।
आज़ादी की, अपना बेशकीमती समय अपने हिसाब से खर्च सकूं।
आज़ादी की ग़लत को ग़लत कह सकूं।
मुझे किसी पर हुकूमत करने की ख्वाहिश नहीं।,पर कोई मुझपर हुकूमत करना चाहे तो इंकार कर सकूं।
आज़ादी की इबादत के लिए अपना ख़ुदा चुन सकूं, बगैर इस बंदिश के, की मैने कहां जन्म लिया है।
मैं मनुष्य की उत्कृष्टता का सबसे ऊपरी सिरा पाना चाहती हूं। मैं आज़ादी को अपने रोंय रोंय से पीना चाहती हूं।
मुझे नहीं स्वीकार की मैं वहीं जानू और सीखूं और करूं जो मेरे लिए किसी और ने तय किया है।
मैं ने किसी की निजता भंग नहीं की कभी,ना ही अपनी चाहतें लादनी चाही किसी और के कंधो पर,अपने कंधों पर से भी किसी का जुआ हटाने की कोशिश में हूं।
किसी और के आसमान की चाहत नहीं मुझे,मैं अपने आसमान की हद में हूं।
मैं आज़ाद होने की ज़द्दोज़हद में हूँ
Web Title: Poem by Pratibha Jain Shah
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