भारत- Shubham Deshmukh

 

विषय - 2 आज़ादी के बाद देश के भिन्न क्षेत्रों (उद्योग, तकनीक, भाषा, नीतियां आदि) में विदेशी वर्चस्व, हिंदी एवं राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता एवं आज़ादी


भारत- शुभम देशमुख 'पथिक'

                  


भारत देश परिचायक है;

युगों पुरानी सभ्यता का,

सदियों से यह कर रहा है;

बखान हमारी भव्यता का।||१||


नयी नहीं है बात जहाँ;

शिक्षा की, संस्कारों की,

बेलाऐँ चलतीं है जहाँ,

नित-नये त्योहारों की।||२||


मिट्टी यहाँ की प्यारी है;

माँ की गोद के जैसी,

मन को खुश कर देतीं हैं,

खुशबू इसकी सौंधी-सी।||३||


वनों में हरियाली मुस्कातीं;

खेतों में फसलें लहरातीं,

कल-कल बहते हैं झरने,

नदियाँ हैं नवगीत सुनातीं।||४||


देश बसा यह गांव में;

पीपल-आम की छाँव में,

बाग की नाजुक कलियों में,

नगरों की उलझीं गलियों में।||५||


सागरों से घिरा देश है;

घने वनों से भरा देश है,

बदलते इस समय में भी,

शांति का यहाँ परिवेश है।||६||


किसान-हस्त से रोपित भारत;

मातृ-भाव से पोषित भारत,

संस्कृति से सज्जित भारत,

सम्राटों से पुलकित भारत।||७||


आज भी कई राज्यों में हैं;

राजाओं की राजधानीं,

एक बार पूछो तो उनसे,

फिर बोलतीं उनकी जुबानी।||८||


इतिहास का बोध कराते;

पुरातन कई किले खड़े हैं,

अद्भुत विरासत को संभाले,

आज भी हठ पर अड़े हैं।||९||


पत्थर उनके फुसफुसाते;

पुरानी हर गाथा बतलातें,

कला-रहस्य भंडार हैं,

परिचय को तैयार हैं।||१०||


कितने बसंत वें देख चुकें;

अपने आप में मगन हैं सब,

मधुर प्रतीक्षा हैं कर रहें,

युग- स्वागत में खड़े हैं सब।||११||


नवयुग आए और बीत गए;

पत्थरों में दरारें खींच गए।

यों तो ना टिके कुछ पूर्व महल;

जो डटे रहे;वहीं टिके संभल।||१२||


समय ने अब ली है करवट;

हुई है कुछ धीमी आहट,

उल्टी हवाएं चल रही हैं,

सावधान यह कर रही हैं।||१३||


एक अजीब सी घुटन;

जाने क्यूँ हो रही है,

तुफान के पहले की शांति;

जैसी यह लग रही है।||१४||


यवनों का प्रथम आक्रमण;

संस्कृति का हुआ क्षरण, 

अलक्षेन्द्र रहा दूराक्रांत, 

धूर्त सेल्यूकस तदुपरांत।||१५||


संस्कृति-क्षीण-पतन-मानिंद;

सिंधु तर आया मिलिंद, 

कालक ने भेजा निमंत्रण, 

शकों का हुआ आक्रमण।||१६||


उत्पात मचाते हूण कुषाण;

आर्यों का किया नुकसान,

गजनवी ने वार पर वार किए,

ब्राह्मणों पर अत्याचार किए।||१७||


तुर्क गौरी वार कर हारा;

चौहान दयालु, गौरी को छोड़ा,

धूर्त गौरी फिर बल से लड़ा।

पृथ्वीराज को बंदी बनाया,

||१८||


पृथ्वी की पराजय हुईं;

बंदी बनाकर हत्या हुईं,

कई विच्छेदक भिड़े रहे,

भारत के खण्ड करते रहे।||१९||


बहमनी-मुगल भी घुसे देश में;

बाबर भी रहा बर्बर वेश में,

भिन्न सभ्यता; उत्थान-पतन,

बुद्धिजीवियों का अचेतन।||२०||


जब अंग्रेज आए इस देश में;

सोने की चिड़िया सहम गईं थीं,

व्यापरियों के वेश धरे-

लुटेरों को देख रही थीं।||२१||


जिनके स्वागत में जुटे थें;

हमारे देश के कई रक्षक,

तब किसे पता था ये बनेंगे,

हमारी स्वतंत्रता के भक्षक।||२२||


हमारे पूर्वजों ने श्रम से;

जो अखंड पौधा रोपा था,

गोरों ने उसके खंड करके,

दुशासन हम पर थोपा था।||२३||


भिड़ें थे भूखे भेड़ियों से;

चीख रही थीं भारत माँ,

अत्याचार से सिसक रही थीं,

वेदभूमि की वेदना।||२४||


निर्दयी अंग्रेजों ने तब;

किए थे नरसंहार कई,

कई तोपें चलीं थीं तब,

गोलियों की बौछार हुईं।||२५||


देश के कई चौराहों पर;

मनीं खून की होली थीं,

भारत माता के आंगन में,

रक्त-रंजित रंगोली थीं।||२६||


भय फैला था तब जन में;

मन में थे शंका के भाव,

डरा-सहमा था भारत,

घायल थे सारे सुझाव।||२७||


स्वर्ण-चिड़िया जूझ उठीं थीं;

अपने मन की ग्लानि से,

निकली थी चीख; दास-देह के,

हर एक बूंद-खून-पानी से।||२८||


कल तक जिन गलियों में;

मेलों का शोरगुल था,

आज उन गलियारों में,

मातम था पसरा हुआ।||२९||


गिनती के थें वें कुछ हजार;

हम ना कर पाए प्रहार,

हम पर हावी हो चला था,

"सादर स्वीकार" करने का भाव।||३०||


हम ने सीखा था अब तक;

नगण्य भी स्वीकारना,

नकारने का भी विकल्प था,

लेकिन हमने ना किया मना।||३१||


पक्ष-टकराव से विस्मित भारत;

छद्म-मैत्री से विचलित भारत,

सिसकतीं भारती;जलता भारत,

प्रतिपल तिल तिल मरता भारत।||३२||


लेकिन कब तक आँधियाँ;

यूं भारत में टिक पातीं?

कब तक हमारे देश की ,

सभ्यता यूं कुचली जातीं?||३३||


निंघ नीतियां थीं आंग्लों की;

एकी हुई भारतीयों की,

सनातन की प्रतिशोध वृत्ति,

तमचरों की मनोवृत्ति इति।||३४||


हुई एक नई शुरुआत;

भव्य क्रांति जगी देश में,

जो जनशक्ति थीं मातहत,

कूद पड़ी थीं रौद्र वेश में।||३५||


आर्यों को जिन गोरों ने;

अब तक निर्जीव समझा था,

उन्हीं गोरों ने अब हमारा,

भयानक रूप देखा था।||३६||


क्रांति की इक चिंगारी से;

विद्रोह की ज्वाला जाग उठीं,

जो तलवारें रखी हुई थीं,

सारी की सारी चमक उठीं।||३७||


निजता का संकल्प लेकर;

रण में सेनानी कूद पड़े,

चट्टानों से अडिग रहकर,

विजय के लिए रहे अड़े।||३८||


लड़ें थें वें कस कर कमर;

आंग्लों से जीते समर,

हमारी एकता देखकर,

भागे थे गोरे घबराकर।||३९||


तीस करोड़ भारतीयों ने;

साहस का परिचय दिया,

नब्बे हजार अंग्रेजों को,

भारत से खदेड़ दिया।||४०||


अंग्रेजों ने जाते जाते;

हमारे साथ छल किया,

हमारे देश के खण्ड कर,

धीमा विष था घोल दिया।||४१||


दिए पूत कई माँओं ने;

इस चिड़िया की आजादी को,

लड़े-मिटे कई देशभक्त,

पा गए वीर अमरता को।||४२||


परवश की वह काली रात;

आखिरकार बीत चुकीं थीं,

भारत के संपूर्ण फलक से,

विदेशी धुंध अब छंट चुकीं थीं।||४३||


कई रातों के बाद अब;

आजादी वाली सुबह हुईं थीं,

कितनी गोदें सूनी करके,

नन्हीं स्वतंत्रता जन्मीं थीं।||४४||


असंख्य बलिदानों के बाद;

आजादी भारत में आईं,

दुःख के आँसू पोंछ कर,

भारत माता मुस्कायीं।||४५||


बीती बातों का त्रास छिपाकर;

नव-विस्मिला करनी थीं,

सोने की चिड़िया को अपने,

परों से उड़ान भरनी थीं।||४६||


विश्वगुरु भारत को अब;

स्वयं-कल्प करना था,

त्रासदी से अब उबरकर,

नव निर्माण करना था।||४७||


चल पड़ा फिर आर्यावर्त;

करने सृजन सभ्यता का,

विभिन्नताओं से भरपूर,

देने परिचय एकता का।||४८||


कितने झंझावातों में घिसकर;

और तीक्ष्ण बना है भारत,

ऐसी कितनी चुनौतियों से,

हमेशा डटकर लड़ा है भारत।||४९||


हर बार नए साँचे में;

नये रूप में ढलता भारत,

गणतंत्र का पालनकर्ता,

लोकतंत्र से चलता भारत।||५०||


परिभाषा में जो ना अँटे;

ऐसा एक ब्रम्हांड है भारत,

नवाक्षरों से परिभाषा,

इस समय लिख रहा है भारत।||५१||


Web Title: Poem by Shubham Deshmukh


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