हे जननी अब ज्वाल बनो ,तुम, poem by Ashish Gupta

 

हे जननी अब ज्वाल बनो ,तुम,
हे भगनी तुम काली विकराल बनों,
हे लेखनी तु भी अब बिकराल बनो तुम,
और फिर एक बार इस मानवता का त्रास हरों।
हम (पुरुष) बने विकराल काल ,
सह्स्त्र भुज ,मुख मण्डल विशाल,
मानव बन इस मानवता त्रास हरे ,इस दानवता त्राण करे।
संसार मे किसका समय है एक सा रहता सदा,
है निशी दिवा सी घुमति स्वर्त्र विपदा-सम्मपदा,
जो आज एक अनाथ है नर नाथ कल होता वही,
जो आज उत्सव मग्न है कल शोक मे रोता वही।
उत्थान-पतन का यह नियम प्रकृति का आज भी अखण्ड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम( पुरब)मे,
डुबता वही मार्तण्ड(सुर्य) है।
माँ शारदे इस लेखनी मे शब्द तु विकराल भर ,
हे शिवहरी आप (0) शुन्य बन अब ताण्डव का संधान करे।
नाश करे इन चमड़ी चोरो मे,त्रास भरे सब काम चोरों में,
त्राही-त्राह मचा अब इनमे ,
इनका सोया कर्म जग जाएगा।
ये कर्म करे लौटे तेरी छाती पर,
पर हेतु तेरा दुग्ध(अमृत) होगा ,
दोनो मे भाव ममतामयी होगा।
तु जननी ,तु भगनी मेरी ,तुही बेटी तुही पत्नी हो ,
यह भाव भर जगा इनको,
इस नारी शक्ति पे अत्याचारों अब इतिहास बता इनको।
नही तो इस धरा से परिवर्तन चक्र मिट जाएगा,
नही रहेगी श्रृष्टि तुम्हारी ,कृति तेरा मिट जाएगा।
जब नही रहेगी धरा तुम्हारी तो क्या तेरा यह चन्द्रमा रह जाएगा।
शुन्य सा बना मोतियों की माला के,
टुटने पर क्या वह माला रह जाएगा।
सृष्टि का है काम सृजन जो शुन्य से अनंत तक जाता है,
न कि तुम जैसे इस्लामिकों(राक्षसों) के कल्पना लोक मे कोइ नुर या हूर मिल पायेगा।
जन्म लेकर तुम शुन्य लोक से ,कल्पना (दिवा स्वपन) लोक मे जिए जाते हो।
नही तो इस धरा से परिवर्तन चक्र मिट जाएगा,
नही रहेगी श्रृष्टि तुम्हारी ,कृति तेरा मिट जाएगा।
जब नही रहेगी धरा तुम्हारी तो क्या तेरा यह चन्द्रमा रह जाएगा।
शुन्य सा बना मोतियों की माला के,
टुटने पर क्या वह माला रह जाएगा।
सृष्टि का है काम सृजन जो शुन्य से अनंत तक जाता है,
न कि तुम जैसे इस्लामिकों(राक्षसों) के कल्पना लोक मे कोइ नुर या हूर मिल पायेगा।
जन्म लेकर तुम शुन्य लोक से ,कल्पना (दिवा स्वपन) लोक मे जिए जाते हो।



Web Title: poem by Ashish Gupta


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