अस्त-व्यस्त हो थक कर बैठा पथिक Poem by Madan Mohan Maitrey

 

अस्त-व्यस्त हो थक कर बैठा पथिक।
विकल हुआ कुमुद हृदय से लूटा हो जैसे।
व्याकुल भी है वो, अतृप्त क्षुधा हो जैसे।
जीवन का बहाव उलटा ,ढोला सुधा हो जैसे।
बन प्रतिज्ञ बढता था, किससे हारा है।
छल से छला गया पथिक किस के द्वारा है।।

आह्लादित था वो पथ पर प्रखर प्रकाश से।
किंचित अनजान भी था आते वज्र आघात से।
दिन के ढलने पर आने बाली काली रात से।
वह अतिरिक्त हुआ है कैसे किसी के साथ से।
वेगवान जीवन इसकी उलटी-उलटी धारा है।
क्षुब्ध पथिक यह सोच रहा, क्योंकर हारा है।।


जीवन की विचित्र बात यही है, पथ अंजान है होता।
जो समझ सके न इस मर्म को, दुविधा को ढोता।
अडिग नियम है पथ का, रह न जाए सपनों में खोता।
फलक पर ओस बूंद है, फिर क्यों पलकों से रोता।
अमृत के कण सुख गए, बच गया विष ही सारा है।
किंचित उसके होंठों पर है शब्द, किसे पुकारा है।।

गौण है शब्द कई जीवन के, ज्ञान अर्जित करें तो कैसे।
परछाईं खुद का ही देखे, बोलो खुद से लड़े तो कैसे।
हृदय तंतु जो छिन्न-भिन्न हो, उभरे घाव भरे तो कैसे।
उलटी धारा जीवन की, हृदय के नाव तरे तो कैसे।
वो पथिक जख्म छिपाए बैठा, उसे किसने मारा है।
द्वंद्व का भार अधिक होने पर, किसे पुकारा है।।

अस्त-व्यस्त है वो, बारंबार अपनी छवि पलटता ।
बीती बाते पथ की बीत चुकी, वो क्योंकर रटता ।
अवकाश नहीं होता है नियमों में, वो जो है बचता।
अहो! पथिक बैठा-बैठा, ऐसे किसकी माला भजता ।
हार-जीत का जो भ्रम फैला हो, फल होता खारा है।
पुनरावर्तित प्रकाश बिंदु से, नहीं मिटता अंधियारा है।।


Web Title:Madan mohan maitrey 


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