हां मैं ही बहन ,बेटी ,महतारी हूं- Indra Tiwari 'indu'

 

नारी सम्मान पर खाकर चोट,

 जब मैंने खुद को मिटा़ना चाहा 

अनगिनत व्यथा मन में रखे ,

नदिया की धार में बहना चाहा ।

नदी के कल -कल मधुर स्वर में,

 जीवन उसका समझना चाहा।

 यह कंकर पत्थर खाती है ,

फिर भी मीठा नीर पिलाती है ।

अनवरत ये  बहती जाती है,

थकने पर भी इठलाती है ।

बड़े वेग से नदी लहराई ,

मानो मुझसे  कहने आई ।

हम दोनों में एक समता है ,

नदी -नारी दोनों में ममता है ।

 तुम कटु वचनों को  सह जाती हो,

फिर भी ममत्व लुटाती  हो। 

रुप अनगिनत धरती हो ,

क्या बहना, तुम थक जाती हो ?

मैं नदी हूं नित ही बहती हूं ,

फिर सागर में मिल जाती हूं ।

तुम तो धीरज की गागर हो ,

ममता से भरा एक सागर हो।

विधि विधाता के सपनों को ,

साकार तुम ही तो करती हो ।

बिन मांगे जब सर्वस्व लुटाती हो,

 फिर अधिकार अपना क्यों गंवाती हो?

 तुम हो ब्रह्मांड की जननी मां ,

सम्मान तेरा अधिकार है ।

सृष्टि को कोख में धारण कर ,

तुमने जग पर किया उपकार है ।

अब जागो खुद पर अभिमान करो ,

और अपमानों  का अंत करो ।

नदिया की स्वप्निल लहरों ने ,

तन -मन को मेरे भिगो दिया ।

 अबला हूं , पर कमजोर नहीं ,

लहरों ने मुझको सिखा दिया ।

ममता के लिए मैं नारी हूं ,

दुर्जन के लिए मैं आरी हूं ।

दो कुल की लाज बचाने वाली ,

हां मैं ही बहन ,बेटी ,महतारी हूं। हां मैं ही ......।



Web Title: Poem by Indra Tiwari 'indu'


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