नारी सम्मान पर खाकर चोट,
जब मैंने खुद को मिटा़ना चाहा
अनगिनत व्यथा मन में रखे ,
नदिया की धार में बहना चाहा ।
नदी के कल -कल मधुर स्वर में,
जीवन उसका समझना चाहा।
यह कंकर पत्थर खाती है ,
फिर भी मीठा नीर पिलाती है ।
अनवरत ये बहती जाती है,
थकने पर भी इठलाती है ।
बड़े वेग से नदी लहराई ,
मानो मुझसे कहने आई ।
हम दोनों में एक समता है ,
नदी -नारी दोनों में ममता है ।
तुम कटु वचनों को सह जाती हो,
फिर भी ममत्व लुटाती हो।
रुप अनगिनत धरती हो ,
क्या बहना, तुम थक जाती हो ?
मैं नदी हूं नित ही बहती हूं ,
फिर सागर में मिल जाती हूं ।
तुम तो धीरज की गागर हो ,
ममता से भरा एक सागर हो।
विधि विधाता के सपनों को ,
साकार तुम ही तो करती हो ।
बिन मांगे जब सर्वस्व लुटाती हो,
फिर अधिकार अपना क्यों गंवाती हो?
तुम हो ब्रह्मांड की जननी मां ,
सम्मान तेरा अधिकार है ।
सृष्टि को कोख में धारण कर ,
तुमने जग पर किया उपकार है ।
अब जागो खुद पर अभिमान करो ,
और अपमानों का अंत करो ।
नदिया की स्वप्निल लहरों ने ,
तन -मन को मेरे भिगो दिया ।
अबला हूं , पर कमजोर नहीं ,
लहरों ने मुझको सिखा दिया ।
ममता के लिए मैं नारी हूं ,
दुर्जन के लिए मैं आरी हूं ।
दो कुल की लाज बचाने वाली ,
हां मैं ही बहन ,बेटी ,महतारी हूं। हां मैं ही ......।
Web Title: Poem by Indra Tiwari 'indu'
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