नारी’ बता कैसे भला यह शब्द परिभाषित करूं- Poem by Ashutosh Tiwari

 "नारी’ बता कैसे भला यह शब्द परिभाषित करूं..!!


जिसके क्षणिक मुस्कान से है हारता तीनों भुवन,

जिसकी प्रतीक्षा के लिए रुकती सरित रुकता पवन,

बरसो से वह कुचली दबी निज भूलकर अस्तित्व को,

चलती रही दबती रही आकार में ढलती रही।

मीरा बनी सीता बनी, बन उर्मिला दमयंती बन,

जग के नियम के क्रूर हाथों से सदा छलती रही।

पूछा भला किसने कभी 'क्या चाहती है वह भला?

चौखट ही लक्ष्मणरेख कह जब कैद कर डाला उसे,

जब भेंट कह कर दी गयी विष शब्द की माला उसे।

वह छटपटा सी रह गई पति पुत्र के संवाद में,

किन शब्द में? तू ही बता, अब पीर वह भावित करुँ..!!


मत विश्व कह अबला उसे वह सब बलों की खान है,

ममतामई यदि है जलधि तो जीत का अभिमान है।

वह गार्गी का ज्ञान है अनुसूय सी गंभीर है,

उसमें भरी बिन दोष के उस उर्मिला की पीर है।

परिवार के दो व्यक्तियों के बीच का संवाद है,

वह शक्ति है सामर्थ्य है संवेग है उन्माद है।

नारी पुरुष के हृदय के भावों की औषधिलेप है।

वह पंक की है पंकजा अकुशल समय आक्षेप है

अर्धांगिनी है पार्वती जी और रति से पूर्ण है,

है मोहिनी सति सी प्रचण्डा कालिका की तुर्ण है।


पर आज देखो लभ्य को वह तीव्र गति से बढ़ रही,

वह चंद्रमा मंगल हिमालय की शिखर पर चढ़ रही,

वह लिख रही नित इक नया अध्याय जग इतिहास में,

वह भेद देती लक्ष्य को क्षण मात्र में परिहास में,

जो थी कभी बस यामिनी, अब दामिनी सी जल रही।

जो थी कभी अनुगामिनी, बन पथ प्रदर्शक चल रही।

विकसित निरंतर सोच का पर्याय बाकी है अभी।

नारी तेरे उत्कर्ष का अध्याय बाकी है अभी।"



Web Title: Poem by Ashutosh Tiwari 


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